Tuesday, January 29, 2008

ड्राइवरी और शायरी


घूमने-फिरने के लिए हम जेनेटिकली प्रोग्राम्ड होकर आए थे. सो होश संभालते ही जब भी मौका मिला, झोला उठाकर घर से चल देते थे. पिताजी की पोस्टिंग जहां थी उस जगह से गांव जाने में करीब पांच घंटे लगते थे. अपनी जन्मजात प्रवृत्ति के चलते अक्सर इस सफर में हम अकेले ही होते थे और इसका उत्साह हमारे शरीर में हफ्तों पहले से दौड़ता रहता था. अपना बैग तैयार करते थे, योजनाएं बनाते थे कि रास्ते में बस रुकेगी तो होटल में कौन-कौन से पकवानों का लुत्फ उठाएंगे और गांव जाकर दोस्तों के साथ कौन कौन से कारनामों को अंजाम दिया जाएगा.
छोटी-छोटी चीजों पर अपन बचपन से ही बड़ा ध्यान देते रहे. अपनी कई यात्राओं के दौरान हम बसों, ट्रकों और जीपों पर लिखी इबारतों को बड़े गौर से देखते थे. धीरे-धीरे हमें लगा कि ड्राइवरों के इस साहित्यिक प्रेम की अपनी एक अलग विधा है. मसलन हार्न ओके प्लीज किसी सार्वत्रिक नियतांक यानी यूनिवर्सल कांस्टेंट की तरह हर ट्रक के पीछे लिखा दिखता है. हमारा छोटा दिमाग इस लाइन का यही अर्थ लगाता था कि ट्रक के पीछे पहुंचते ही हर गाड़ी को हार्न बजाना चाहिए क्योंकि ट्रक ड्राइवर प्लीज कहकर इसकी प्रार्थना कर रहा है. और ऐसा किया जाए तभी बात ओके होती है.
कई लोग गाड़ी के नंबर को शायरी में ढालकर अपना शौक पूरा करते हैं. मसलन अगर नंबर 2345 तो शेर कुछ ऐसा होगा, 23 के फूल 45 की माला, बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला.
हालांकि इस शेर में भी कई वैरायटी देखने को मिलती हैं. मसलन थोड़ा संत टाइप के ड्राइवर तेरा मुंह काला कि जगह तेरा भी भला लिख देते हैं. कुछ और भी हैं जो काले मुंह से एक स्तर नीचे चले जाते हैं. वो सिर्फ इतना ही लिखते हैं, बुरी नजर वाले की सेवा में...और इसके आगे एक चप्पल लटका देते हैं.
कई लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें ड्राइवर होने की सार्वजनिक छवि से शिकायत होती है. वो अपना दुखड़ा कुछ इस तरह रोते हैं
तितलियां रस पीती हैं, भौंरे बदनाम होते हैं
दुनिया शराब पीती है, ड्राइवर बदनाम होते हैं.
बताइये...है न त्रासदी...खैर ड्राइवरी के पेशे में एक जमात ऐसों की भी होती है जिन्हें आग लगे, बज्र गिरे कोई फिक्र नहीं. उनका मिजाज कुछ यूं होता है.
चलती है गाड़ी, उड़ती है धूल
जलते हैं दुश्मन, खिलते हैं फूल.
और इस पर गौर फरमाएं
मालिक की गाड़ी, ड्राइवर का पसीना
रोड़ पे चलती है, बन के हसीना
अब आता है नंबर भगत टाइप लोगों का. इनकी गाड़ियों में आपको भक्तिभाव कूट-कूट कर भरा नजर आएगा. डैश बोर्ड पर कई मूर्तियां, चमचम करती लाइटें और ढेर सारी फूलमालाएं और ये शेर.
चांदनी रात है, सड़क का किनारा है
हाथ में स्टेयरिंग है, माता का सहारा है.
कुछ लाइनें हैं जिनकी एक जमाने में धूम हुआ करती थी. लाइनें क्या थीं नारे थे, मसलन दुल्हन ही दहेज है या फिर बच्चे दो ही अच्छे. आजकल ये कम नजर आती हैं. लगता है अब नसीहतों का जमाना गया.

Monday, January 28, 2008

सर्दी पर कुछ ऐसे ही....

सोच रहे थे कि सर्दी बस जाने ही वाली है...लेकिन पिछले कुछ दिन से पहाड़ों से बर्फ को छूकर आती हवा तो कहने पर तुली है कि बेटा बसंत, अभी नहीं होने दूंगी शीत का अंत.
अपन जैसे आम आदमी के लिए इस ठंड की अपनी परेशानियां हैं. जैसे कि इस वक्त टाइप करते हुए उंगलियां इस तरह का व्यवहार कर रही हैं जैसे दो पैग अंदर खींच लिए हों. कुछ का कुछ टाइप हो रहा है और फिर उसे मिटा मिटाकर तुक ताल में किया जा रहा है.
सरदी में सबसे ज्यादा मुश्किल होती है सुबह-सुबह दो नंबर का काम निपटाने में. पॉट यानी बैठने की सीट सियाचिन बनी होती है और सिविलियन टाइप किसी बंदे को पोजीशन लेने से पहले कलेजे में किसी फौजी जैसी ही हिम्मत इकट्ठा करनी पड़ती है. कुल मिलाकर इस समूची प्रक्रिया को प्रकृति की पुकार, बैठने से पहले हृदय का चीत्कार और बैठते ही तीन चार सेकेंड तक हाहाकार जैसे तीन चरणों में समझाया जा सकता है.
हालांकि हमारे एक मित्र ने इस मुश्किल को कुछ काबू करने का एक तरीका अपना लिया है. वो समाधिस्थ होने से पहले गीजर का खौलता पानी आसन पर डालते हैं और फिर निडर होकर काम निपटाते हैं.
मगर अपने पास गीजर नहीं है और उठते ही काम आन पड़े तो पानी गर्म करने का समय प्रकृति हमें देती नहीं. फिर एक खतरा और है. हमारे एक दूसरे मित्र ने एक बार कुछ ज्यादा ही खौलते पानी का प्रयोग कुछ ज्यादा ही देर तक किया और बिना एक क्षण गंवाए आसन पर बैठ गए. इसकी कीमत उन्हें बाद में बरनॉल खरीदकर चुकानी पड़ी.
बचपन के दिनों में हमारे कुछ दोस्त थे जिनके लिए सर्दियों का महत्व किसी राष्ट्रीय पर्व से कम नहीं हुआ करता था. नहाना उनके लिए नाजी कैंपों में होने वाली किसी गतिविधि जैसा होता था और सर्दी में ठंड की दुहाई देकर इससे बचना कुछ आसान होता था. गर्मियों में भी वो इतवार को सुबह-सबेरे घर से खेलने निकल पड़ते क्योंकि उस दिन न नहाने के लिए उनका कोई बहाना नहीं चलता. हम शिशु मंदिर में पढ़ते थे और अक्सर दीन दशा को जा पहुंचे इन बंधुओं को आचार्यजी द्वारा स्कूल में नहलाया जाता था.
सर्दियों की रात को अगर लाइट चली जाती तो ये हमें जैसे मनमांगी मुराद मिल जाती थी. किताबें बंद कर हम सब भाई बहन अंगीठी के पास जा बैठते और आग सेंकते हुए मूंगफली खाते. साथ ही भगवान से प्रार्थना करते कि लाइट तभी आए जब खाना बन जाए. मां जब घोषणा करतीं थीं कि खाना बन गया है तो इसका मतलब होता था कि पढ़ाई खत्म. लेकिन इससे पहले भी पढ़ाई बस नाम की ही होती थी और एक डेढ़ घंटे में अपन रसोई के कई चक्कर लगाकर आ जाते थे कि अब कितनी देर है.
वक्त के साथ हममें भी बदलाव आए हैं पहले फटे गालों और हाथपांव के बावजूद सर्दी तकलीफ कम आनंद ज्यादा थी. आज ये आनंद कम तकलीफ ज्यादा है.