Tuesday, February 2, 2010

कब कटेगी चौरासी: चेहरे की धूल दिखाता आईना


पुस्तक समीक्षा

पुस्तक : कब कटेगी चौरासी

लेखक : जरनैल सिंह

कीमत : 99 रुपए

प्रकाशक: पेंगुइन बुक्स

लेखन की सार्थकता अगर संवेदना को छूने में है तो कब कटेगी चौरासी इससे कुछ आगे निकल जाती है. इसलिए क्योंकि यह हमारी संवेदना को सिर्फ छूती ही नहीं बल्कि झकझोर देती है, सावधान भी करती है कि सभ्यता के विकास के तमाम दावों के बावजूद हम अब भी काफी हद तक अपनी आदिम पाशविक प्रवृत्तियों से बंधे हुए हैं. इसे पढ़ते हुए लगातार लगता है कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा और बरबस ही नाजी कैंपों और बंटवारे पर लिखी गई किताबों के अंश या इन घटनाओं पर बनी फिल्मों के दृश्य मन में कौंधते हैं. किताब की प्रस्तावना में चर्चित लेखक खुशवंत सिंह लिखते हैं कि यह उन सभी लोगों को पढ़नी चाहिए जो चाहते हैं कि ऐसे भयानक अपराध दोबारा न हों. उनकी बात बिल्कुल सही है. अगर इसे पढ़कर बतौर समाज हमें अपना अक्स धुंधला नजर आए तो कसूर इस आईने का नहीं बल्कि हमारे चेहरे पर पड़ी धूल का होना चाहिए.

कब कटेगी चौरासी के लेखक हैं कुछ समय पहले एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान गृहमंत्री पी चिदंबरम की तरफ जूता उछालकर चर्चा में आए पत्रकार जरनैल सिंह. उनके मुताबिक इसे लिखने का उद्देश्य 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सिखों के नरसंहार की बर्बरता और उसके बाद भी अब तक लगातार जारी अन्याय का सच सामने लाना है. वे लिखते भी हैं, ‘जूते से विरोध प्रकट कर दुनिया को इस अन्याय की याद तो दिला दी पर इस अन्याय को किताब के तौर पर सामने लाकर दोषियों को शर्मिंदा करना होगा.इसके बाद जरनैल लिखते हैं,‘सिखों के साथ हुए अन्याय के खिलाफ उनके दर्द और रोष को अपने सांकेतिक विरोध के जरिए प्रकट करने के बाद मुझे तिलक विहार और गढ़ी में 1984 के पीड़ितों की विधवा कॉलोनियों में जाने का मौका मिला. उनकी दयनीय स्थिति को देखकर और दर्दनाक कहानियों को सुनकर दिल और ज्यादा दुख से भर गया. मैंने देखा कि 1984 के कत्लेआम को उस तरह से कवर ही नहीं किया गया जिस तरह से किया जाना चाहिए था..लगा कि इस दास्तान को दुनिया के सामने लाना बेहद जरूरी है.

इस तरह देखा जाए तो यह एक तरह से भुक्तभोगियों द्वारा अपनी व्यथा का मार्मिक वर्णन है जिसके जरिए कुछ अहम सवाल उठाए गए हैं. चूंकि जरनैल पत्रकार हैं और बेहद आहत भी, इसलिए इस काम में उन्होंने अपनी पत्रकारीय प्रतिभा के साथ निजी भावनाओं का मेल भी कर दिया है जो किताब पढ़ते हुए महसूस भी होता है. दंगा पीड़ितों की जिंदगी के दुखद अध्याय के साथ चलती गई उनकी कलम ने अपने दिल का गुबार भी जी-भर उड़ेला है. उन्हीं के शब्दों में अगर किसी भूकंप या तूफान में लोग मारे गए हों तो अलग बात है पर कत्लेआम को कैसे भूल जाएं? खासकर जब तक न्याय न हुआ हो..भूल जाना कोई हल नहीं है. इतिहास से सबक लिया जाता है न कि उसे भूला जाता है. सबक इसलिए ताकि वैसी गलतियां फिर न दोहराई जाएं. जरूरत भूलने की नहीं, न्याय करने की है.

84 के पीड़ितों की कहानियां अखबारों या पत्रिकाओं के जरिए टुकड़ों-टुकड़ों में पहले भी कही गई हैं मगर हिंदी में उन्हें एक किताब के रूप में सामने लाने का शायद यह पहला प्रयास है. समीक्षा के लिहाज से देखा जाए तो इसमें कुछेक दोष जरूर हैं मगर जब त्रासदी इतनी विकराल और हृदयविदारक हो तो उसके वर्णन में हुए चंद भाषागत और भावनात्मक दोष ज्यादा मायने नहीं रखते.

महान कथाकार शैलेश मटियानी कभी कह गए थे कि समाज की संवेदना को बचाए रखने का काम ईश्वर और प्रकृति ने लेखक पर छोड़ा है. जरनैल ने अपनी यह जिम्मेदारी सच्चे मन और अच्छे ढंग से निभाई है.

विकास बहुगुणा

उन आंखों से वाबस्ता अनजान अफसाने


तवायफें कभी तहजीब की पाठशाला हुआ करती थीं. कई कलाएं उनकी बदौलत ही समाज को मिलीं और इसलिए एक दौर में समाज ने भी उन्हें ऊंचा दर्जा दिया. फिर दौर बदला. तवायफें पहले बदनाम हुईं, फिर गुमनाम और आखिर में उनका नाम ही गाली हो गया. तृषा गुप्ता और विकास बहुगुणा का आलेख

सबा दीवान की हालिया डॉक्यूमेंट्री फिल्म द अदर सांग के एक दृश्य में कैमरा एक पुराने अलबम पर फोकस होता है और इस पर चलती हुई उंगली एक गोल और सुंदर से चेहरे पर ठहर जाती है. फिर एक सारंगीवादक की खरखरी-सी आवाज आती है, ‘ये रसूलन बाई हैं.’ फिल्मकार पूछती हैं, ‘क्या ये हमेशा इतने सादे कपड़े पहनती थीं?’ जवाब आता है, ‘मुजरा नाच तो करना नहीं था.’

‘हालांकि यह साफ था कि ये महिलाएं लड़ाई करनेवाली नहीं थीं, मगर फिर भी उन्हें बागियों को भड़काने और उनकी आर्थिक सहायता करने की सजा मिली’

रसूलन बाई ने 1948 में मुजरा छोड़ दिया था. कथक आधारित यह भावपूर्ण नृत्य तवायफों की पहचान हुआ करता था. इसके बाद उन्होंने अपना कोठा भी छोड़ दिया और बनारस की एक गली में बने मकान में रहने लगीं. रसूलन बाई, जिनके दर्दभरे गीत शायद भारत में ठुमरी की सबसे मशहूर प्रस्तुतियां थे, अब अपने ही शहर में गाना छोड़ चुकी थीं.

उमराव जान, पाकीजा, देवदास...तवायफों के बारे में हमारी जानकारी और धारणा को काफी हद तक हिंदी फिल्मों ने ही ढाला है. इसलिए दीवान की इस फिल्म में श्वेत-श्याम तस्वीरों में नजर आती रसूलन बाई जैसी तवायफों को देख कर थोड़ा अजीब-सा लगता है. दरअसल आज तवायफ शब्द के साथ जो छवि चस्पां हो चुकी है, उसे देखकर कल्पना करना मुश्किल होता है कि कभी तवायफों को बहुत सम्मान की नजर से देखा जाता था और शायरी, संगीत, नृत्य और गायन जैसी कलाओं में उन्हें महारत हासिल होती थी. तहजीब की तो उन्हें पाठशाला ही समझ जाता था और बड़े-बड़े नवाबों के साहबजादों को तहजीब सीखने के लिए बाकायदा उनके पास भेजा जाता था.अपनी कुशल राजनीतिक समझ के बल पर उत्तर प्रदेश की सरधना रियासत की शासक बननेवाली बेगम समरू एक तवायफ थीं. कला और पत्र व्यवहार के क्षेत्र में माहिर मोरन सरकार 1802 में महाराजा रंजीत सिंह की रानी बनीं. महाराजा ने उनके चित्रवाले सिक्के भी चलाए.

गौर करें कि यह उस जमाने की बात हो रही है जब आम महिलाओं का पढ़ना-लिखना तो दूर घर से बाहर निकलना भी दुर्लभ होता था. उस दौर में तवायफों के पास सारे अधिकार होते थे. यहां तक कि वे चाहें तो शादी करके घर भी बसा सकती थीं और उनसे शादी करनेवाले को बहुत किस्मतवाला समझ जाता था. ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में लखनऊ की तवायफें राजकीय खजाने में सबसे ज्यादा कर जमा करनेवाले लोगों में से हुआ करती थीं. ये दस्तावेज लखनऊ नगर निगम के रिकॉर्ड रूम में आज भी रखे हुए हैं.

तवायफों का सबसे सुनहरा दौर शुरू हुआ 18वीं सदी के आखिर में जब मुगलिया सल्तनत बिखर रही थी. उस वक्त कई आजाद रियासतें बन चुकी थीं. इन रियासतों ने तवायफों को वित्तीय संरक्षण दिया. बदले में तवायफें उन रियासतों की कला और संस्कृति की संरक्षक बनीं. उनकी वजह से कथक, ठुमरी, गजल, दादरा जैसी कलाएं फली-फूलीं.

फिर ब्रिटिश हुकूमत शुरू हुई. अब चूंकि अंग्रेज अपनी संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ मानते थे और उन्होंने भारत को जीता था तो वे इस संस्कृति को भारतीयों पर भी लादना चाहते थे. मगर उन्हें भी अहसास था कि यह काम आसान नहीं है. इसके लिए उन्होंने दो काम साथ-साथ किए. पहला यहां की शिक्षा पद्धति बदली और दूसरा भारतीय संस्कृति के कई प्रतीकों पर हमला किया जिनमें तवायफें भी एक थीं. पाश्चात्य सभ्यता से आकर्षित नवभारतीय मध्य वर्ग ने भी इस काम में उनका साथ दिया. यह प्रक्रिया भारत की आजादी के बाद भी जारी रही और इस प्रक्रिया में तवायफ की छवि बिल्कुल ही बदल दी गई.

‘इस दौरान अंग्रेजों की संस्कृति के प्रभाव तले उभरते मध्य वर्ग ने लगातार तवायफों को अनैतिक और पतनशील करार दिया और हिंदुस्तानी संगीत को उनसे ‘बचाने’ के लिए कई कोशिशें शुरू कीं’तवायफ शब्द दरअसल अरबी भाषा के शब्द तायफा का बहुवचन है, जिसका अर्थ होता है समूह. इतिहासकार कैथरीन बटलर ब्राउन के मुताबिक इस शब्द का पहले-पहल इस्तेमाल दरगाह कुली खान द्वारा 1739 में लिखे गए मरकबा-ए-दिल्ली में गायिकाओं और नर्तकियों के समुदायों के लिए देखने को मिलता है. मगर आम प्रचलन में यह शब्द 19वीं सदी में ही आया. ब्राउन कहते हैं कि तब तवायफों के दो वर्ग होते थे. पहले वर्ग में वे तवायफें थीं जो तहजीब की मिसाल और गाने में कमाल हुआ करती थीं और जिन्हें इस वजह से काफी क्षत हासिल होती थी. आमतौर पर ऐसी तवायफों का रिश्ता जिंदगी भर एक ही शख्स से होता था और वह होता था उनका संरक्षक. दूसरे वर्ग में वे तवायफें थीं, जिनमें गाने के मामले में उतनी प्रतिभा नहीं होती थी और इस कारण वे देह-व्यापार पर ज्यादा निर्भर होती थीं.

मगर 1857 के बाद यह स्थिति तब बदल गई, जब पूरे भारत में ब्रिटिश क्राउन लॉ लागू हो गया. इस कानून के तहत सभी तवायफों को वेश्या का दर्जा देकर उनकी गतिविधियों को अपराध की श्रेणी में रख दिया गया. कई अदालतों ने फैसले दिए कि नाचना और गाना तो बस नाम के लिए है और तवायफों की असली कमाई वेश्यावृत्ति से हो रही है. तवायफों के खिलाफ ब्रिटिश हुकूमत के इस अभियान की एक अहम वजह यह भी बताई जाती है कि अंग्रेजों को पता चल गया था कि 1857 की क्रांति की योजना बनाने की जगह के रूप में कोठों की भी मुख्य भूमिका थी. अपनी पुस्तक द मेकिंग ऑफ कॉलोनियल लखनऊ में इतिहासकार वीना तलवार ओल्डनबेर्ग लिखती हैं, ‘हालांकि यह साफ था कि ये महिलाएं लड़ाई करनेवाली नहीं थीं, मगर फिर भी उन्हें बागियों को भड़काने और उनकी आर्थिक सहायता करने की सजा मिली.’

ब्राउन बताते हैं, ‘इस दौरान अंग्रेजों की संस्कृति के प्रभाव तले उभरते मध्य वर्ग ने लगातार तवायफों को अनैतिक और पतनशील करार दिया और हिंदुस्तानी संगीत को उनसे ‘बचाने’ के लिए कई कोशिशें शुरू कीं.’ राष्ट्रीय संगीत बनाने के लिए अभियान चला जिसका मकसद संगीत को मध्य वर्ग की महिलाओं के लिए अनुकूल बनाना था. ऐसे में इसे तवायफों और मुस्लिम संगीतकारों से अलग करने के प्रयास हुए.

तवायफों पर दोहरी मार पड़ रही थी. एक तरफ तो ब्रिटिश हुकूमत उन्हें परेशान कर रही थी और दूसरी तरफ उन्हें मिलनेवाला वह सामंती संरक्षण भी कम होता जा रहा था, जिससे कोठे और उनकी कलाएं फलती-फूलती थीं. ऐसे में तवायफों ने दूसरे विकल्पों की तरफ रुख किया. वह समय रेडियो का था जो उनके लिए एक राहत भरा विकल्प साबित हुआ. ऑल इंडिया रेडियो अपने शुरुआती दिनों में पूरी तरह से गानेवालियों पर निर्भर था. यही हाल रिकॉर्डिंग कंपनियों का भी था. ग्रामोफोन के दौर की जब शुरुआत हुई थी, तो गौहर जान जैसी तवायफों की धूम किसी सुपरस्टार से कम नहीं थी.

अब समाज में संगीत के नए संरक्षक थे जिन्होंने अपने दरवाजे तवायफों के लिए बंद कर दिए थे. ऐसे में तवायफों ने थियेटर, रेडियो और फिल्म जगत का रुख किया. किदवई कहते हैं, ‘सिनेमा तवायफों के इतिहास का एक हिस्सा है, जिसमें तवायफी कला के ऐसे-ऐसे पहलू दिखाए गए हैं जो हम आगे कभी नहीं देख पाएंगे. इसने तवायफों को एक नई जिंदगी दी, स्क्रीन पर भी और उससे इतर भी.’ सिद्धेश्वरी जैसी तवायफों ने तो अंग्रेजी में भी गाना सीखा.

वह समय बड़ा असाधारण था. इस दौरान ठुमरी कोठे से बाहर निकली. गायन की एक ऐसी अंतरंग और भावपूर्ण शैली जो हमेशा महिलाओं का क्षेत्र रही थी तवायफों के कोठों को छोड़ आगे बढ़ी. आधुनिकता की चकाचौंध के हमले से बचने के लिए उसे ऐसा करना पड़ा. अब वह कंसर्ट हॉल, रेडियो और सिनेमा में आ चुकी थी. इस नई और बदली हुई दुनिया में तवायफ को खुद ही गानेवाली या गायिका बनना पड़ा. इस रूपांतरण की सबसे मशहूर मिसाल हैं अख्तरी बाई फैजाबादी जो बाद में बेगम अख्तर के नाम से जानी गईं. छोटी उम्र में ही प्रसिद्ध होनेवाली अख्तरी बाई ने बाद में शादी कर ली थी और कई साल तक गाना भी छोड़ दिया था. जसा कि लेखिका रेग्यूला कुरैशी लिखती हैं, ‘बाद में वे दुनिया के सामने पूरी तरह से बदले हुए रूप में आईं और एक देश की संगीत विरासत का राष्ट्रीय प्रतीक बन गईं.’

मगर इसके अपने नुकसान थे. नए भारत की आवाज बनने के लिए अख्तरी बाई को एक दोहरी जिंदगी जीनी पड़ी. इतिहासकार सलीम किदवई की मानें तो उनका आदर अपने अतीत के एक-एक टुकड़े से खुद को अलग कर लेने पर निर्भर था जबकि दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देने की उनकी क्षमता की जड़ें काफी हद तक इसी अतीत से जुड़ी हुई थीं.तवायफों को मिले इस नवजीवन के कुछ हैरत भरे पहलू भी हैं. फिल्म अभिनेत्री नरगिस का ही मामला लें, जिनकी मां जद्दन बाई भी मशहूर तवायफ थीं. हालांकि अपनी बेटी को फिल्मों के लिए तैयार करते हुए जद्दन बाई ने उसे गाने के अलावा सब-कुछ सिखाया. यह भी एक विरोधाभास ही था कि जद्दन बाई जहां अपनी सुरीली आवाज के लिए जानी जाती थीं, वहीं उनकी बेटी नरगिस के स्टारडम में उनकी गायिकी की कोई भूमिका नहीं थी. यानी नए दौर के साथ तवायफ की भूमिका भी बदल रही थी. पहले नृत्य या मुजरा, फिर सिर्फ गायन और फिर केवल अभिनय. यहां पर हालांकि यह भी कहा जा सकता है कि शायद ऐसा पार्श्वगायन की कला के उभरने से हुआ होगा.

तवायफों का दौर भले ही बीत गया था, मगर उनकी प्रासंगिकता खत्म नहीं हुई थी. जैसा कि दीवान कहती हैं, ‘मुजरे को हिंदी फिल्मों के जरिए फिर से जिंदा करने की कोशिश हुई है. मुंबई के बारों में लड़कियां तथाकथित भारतीय पोशाक घाघरा-चोली पहनती थीं. इसकी कुछ वजह यह है कि ‘भारतीय नृत्य’ के लिए लाइसेंस लेना आसान हो जाता है और यह भी कि यह दर्शकों को पसंद आती है. वहां पर जानेवाला आदमी यह कल्पना कर लेता है कि उसके सामने फिल्म स्टार रेखा नाच रही है.’ हालांकि बार डांसरों और तवायफों का यह सतही दिखता रिश्ता वास्तव में कहीं गहरा है. संगीत और नृत्य के सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं का अध्ययन करनेवालीं अन्ना मोरकॉम बताती हैं कि मुंबई की बार डांसरों का 80 से 90 फीसदी हिस्सा डेरेदार, नट, बेड़िया और कंजर जैसी जातियों से आता है, जिनका परंपरागत पेशा ही इस तरह का रहा है. 2005 में मुंबई के डांस बारों में नृत्य पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जो अब तक जारी है. इससे 75 हजार ऐसी लड़कियों की जीविका छिन गई.

20वीं सदी की शुरुआत में भारतीय समाज में नृत्य को गलत नजर से देखा जाने लगा था. मध्य वर्ग ने नृत्य के खिलाफ चले अभियान में प्रमुख भूमिका निभाई थी. कोठों पर हर तरफ से मार पड़ रही थी. ऐसे में तवायफों ने अपना सम्मान बनाए रखने के लिए मुजरा छोड़ा और गायन या अभिनय का विकल्प चुना. मगर विडंबना देखिए कि अब उसी मध्यवर्ग द्वारा नृत्य को सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा है. शामक डावर, प्रभुदेवा जैसे स्टार, बूगी-वूगी और डांस इंडिया डांस, नच बलिये जैसे टीवी शो की लोकप्रियता और रब ने बना दी जोड़ी जैसी फिल्में इसका उदाहरण हैं. तवायफें तो नहीं रहीं मगर सौभाग्य से उनकी कला उनके साथ ही खत्म नहीं हुई. शास्त्रीय संगीत और नृत्य को अब वही मध्य वर्ग संरक्षण दे रहा है जिसने कभी तवायफों का जीना मुश्किल कर दिया था.