सोच रहे थे कि सर्दी बस जाने ही वाली है...लेकिन पिछले कुछ दिन से पहाड़ों से बर्फ को छूकर आती हवा तो कहने पर तुली है कि बेटा बसंत, अभी नहीं होने दूंगी शीत का अंत.
अपन जैसे आम आदमी के लिए इस ठंड की अपनी परेशानियां हैं. जैसे कि इस वक्त टाइप करते हुए उंगलियां इस तरह का व्यवहार कर रही हैं जैसे दो पैग अंदर खींच लिए हों. कुछ का कुछ टाइप हो रहा है और फिर उसे मिटा मिटाकर तुक ताल में किया जा रहा है.
सरदी में सबसे ज्यादा मुश्किल होती है सुबह-सुबह दो नंबर का काम निपटाने में. पॉट यानी बैठने की सीट सियाचिन बनी होती है और सिविलियन टाइप किसी बंदे को पोजीशन लेने से पहले कलेजे में किसी फौजी जैसी ही हिम्मत इकट्ठा करनी पड़ती है. कुल मिलाकर इस समूची प्रक्रिया को प्रकृति की पुकार, बैठने से पहले हृदय का चीत्कार और बैठते ही तीन चार सेकेंड तक हाहाकार जैसे तीन चरणों में समझाया जा सकता है.
हालांकि हमारे एक मित्र ने इस मुश्किल को कुछ काबू करने का एक तरीका अपना लिया है. वो समाधिस्थ होने से पहले गीजर का खौलता पानी आसन पर डालते हैं और फिर निडर होकर काम निपटाते हैं.
मगर अपने पास गीजर नहीं है और उठते ही काम आन पड़े तो पानी गर्म करने का समय प्रकृति हमें देती नहीं. फिर एक खतरा और है. हमारे एक दूसरे मित्र ने एक बार कुछ ज्यादा ही खौलते पानी का प्रयोग कुछ ज्यादा ही देर तक किया और बिना एक क्षण गंवाए आसन पर बैठ गए. इसकी कीमत उन्हें बाद में बरनॉल खरीदकर चुकानी पड़ी.
बचपन के दिनों में हमारे कुछ दोस्त थे जिनके लिए सर्दियों का महत्व किसी राष्ट्रीय पर्व से कम नहीं हुआ करता था. नहाना उनके लिए नाजी कैंपों में होने वाली किसी गतिविधि जैसा होता था और सर्दी में ठंड की दुहाई देकर इससे बचना कुछ आसान होता था. गर्मियों में भी वो इतवार को सुबह-सबेरे घर से खेलने निकल पड़ते क्योंकि उस दिन न नहाने के लिए उनका कोई बहाना नहीं चलता. हम शिशु मंदिर में पढ़ते थे और अक्सर दीन दशा को जा पहुंचे इन बंधुओं को आचार्यजी द्वारा स्कूल में नहलाया जाता था.
सर्दियों की रात को अगर लाइट चली जाती तो ये हमें जैसे मनमांगी मुराद मिल जाती थी. किताबें बंद कर हम सब भाई बहन अंगीठी के पास जा बैठते और आग सेंकते हुए मूंगफली खाते. साथ ही भगवान से प्रार्थना करते कि लाइट तभी आए जब खाना बन जाए. मां जब घोषणा करतीं थीं कि खाना बन गया है तो इसका मतलब होता था कि पढ़ाई खत्म. लेकिन इससे पहले भी पढ़ाई बस नाम की ही होती थी और एक डेढ़ घंटे में अपन रसोई के कई चक्कर लगाकर आ जाते थे कि अब कितनी देर है.
वक्त के साथ हममें भी बदलाव आए हैं पहले फटे गालों और हाथपांव के बावजूद सर्दी तकलीफ कम आनंद ज्यादा थी. आज ये आनंद कम तकलीफ ज्यादा है.
Monday, January 28, 2008
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2 comments:
बाबू पहाड़ों की सर्दी तो देखी नहीं पर आपके लिखने के अंदाज़ से काफी कुछ अंदाजा मिल गया। एक बात और ताज़ा हो गई। चाहे बचपन पहाड़ों का हो या फिर मैदानों में, छुटपन की जिज्ञासाएं एक सी ही होती हैं। वहीं रसोई की तरफ लगी निगाह, हर नज़र खाने और खेलने की तलाश में... मज़ा आ गया
अतुल
Bahut achha describe kiya hai Vikas, mujhe apna bachpan yaad aa gaya aakhiri lines padh kar !!!
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