जैसे कूपमंडूक सोचता है कि कूप ही संसार है वैसे ही छुटपन में ये पहाड़मंडूक भी सोचता था कि पहाड़ ही संसार हैं...यानी पहाड़ों के बिना संसार का न कोई आधार है और न पहाड़ों के परे संसार का कोई विस्तार...ताजी हवा, नीले आकाश, साफ पानी को तब तक मैं बहुत हल्के में लेता था. लेकिन पहाड़ की ढलान से सरपट फिसलता हुआ जब दिल्ली आया तो पता चला कि पहाड़ के परे भी संसार है और संसार के इस विस्तार में ताजी हवा, नीला आकाश और साफ पानी हल्के में लेने वाली चीज नहीं