Sunday, January 10, 2010

दिल लगा हरसिल में-3


धीरे-धीरे सांझ की लाली पहाड़ों के शिखरों से भी सिमटने लगी थी. थोड़ी ही देर में अंधेरा हो गया. मगर जब तक ऐसा हुआ तब तक हम उस इलाके में प्रवेश कर चुके थे जहां हमने अपना बचपन बिताया था. इसलिए अंधेरे में भी ड्राइविंग में आनंद आ रहा था. करीब साढ़े सात बजे उत्तरकाशी पहुंचे. सर्दियों का मौसम होने की वजह से बाजार में चहल-पहल काफी कम हो चुकी थी. सीधा टूरिस्ट रेस्ट हाउस में गाड़ी लगाई. पुरी जी के सौजन्य से इंतजाम चकाचक था. थोड़ी देर आराम किया और फिर तरोताजा होकर सोचा कि क्यों न कॉलेज के दिनों के एक मित्र को ढूंढा जाए जिससे १२ साल पहले आखिरी बार मिलना हुआ था. नाम के अलावा उसके बारे में जानकारी सिर्फ इतनी ही थी कि उसने अपना कोई होटल खोल रखा है. बाजार में टहलते कुछ लोगों से पूछा तो एक किस्मत से एक सज्जन मिल गए जो मनोज रावत यानी अपने दोस्त को जानते थे. उन्होंने बताया कि थोड़ा ही आगे गंगोत्री रोड पर है उनका होटल. हम फौरन उधर लपके. टाइम नौ के आस-पास हो चुका था और पहाड़ों में इस वक्त तक लोग सोने की तैयारी कर रहे होते हैं. सोचा कि कहीं पहुंचें तो तब तक सब अर्धनिद्रा में न पहुंच गए हों.

होटल मिल गया. तीन मंजिला. इसी में दोस्त का घर भी है. अच्छी बात रही कि वे लोग सोये नहीं थे. गर्मजोशी भरी मुलाकात हुई. १२ साल में उसकी जिंदगी में भी काफी कुछ बदल गया है. बीवी, तीन साल की एक प्यारी सी बेटी, कारोबार.. मनोज ने लानत भेजी कि मैं उसका घर छोड़कर रेस्ट हाउस में रुका. मैंने वजह बताई कि नंबर नहीं था और आधा घंटा पहले तक उसे ढूंढने के लिए लगभग अंधेरे में हाथ-पांव मारे जा रहे थे. तब जाकर उसे कुछ तसल्ली हुई. खाना वे लोग खा चुके थे और अब हमारे लिए खाना बनाने की जिद पर अड़े हुए थे. मगर हमने कहा कि होटल में खाने का भी इंतजाम है और तुम इतनी ठंड में इस चक्कर में मत पड़ो प्यारे. सुबह उसी के यहां से नाश्ता करके जाने का वादा करने के बाद ही मनोज इसके लिए तैयार हुआ. इसके बाद डेढ़-दो घंटे तक बैठे रहे और गरमागरम चाय के साथ पुराने दिनों की यादें ताजा करते रहे. फिर होटल लौटे. खाना खाया और तय किया कि अगले दिन जल्दी से जल्दी जगकर हर्सिल के लिए रवाना हो जाना है. ऐसा हमने पिछले दिन भी तय किया था मगर योजना अमल में नहीं आ सकी थी.

बाकी अगली किश्त में....