Saturday, January 9, 2010

दिल लगा हरसिल से-२



अगले दिन यानी २८ दिसंबर की सुबह उठे और खिड़की का परदा हटाया तो आनंद आ गया. हर तरफ ठंड पसरी हुई थी. हल्के कोहरे में, उससे होकर आती धूप में, पेड़ों से झरते सूखे पत्तों में और नाक-कान को जमाने के लिए तैयार रूखी हवा में. ज्यो को रोज के मुताबिक हांका लगाकर जगाना पड़ा. प्लान बना कि जल्दी से जल्दी गुरुद्वारे में दर्शन कर निकला जाएगा और शाम तक किसी भी हालत में हरसिल पहुंच जाना है. नहा-धोकर गुरुद्वारे पहुंचे. दर्शन किए. मत्था टेका. थोड़ी देर बैठकर भजनों में डूबे और फिर स्वादिष्ट प्रसाद, जो कि मेरे गुरुद्वारे जाने के लिए एक और आकर्षण होता है, खाकर वापस चल दिए. होटल द यमुना का बिल चुकाकर चेकआउट किया. गाड़ी पर ओस जमी हुई थी. इसलिए वैज्ञानिक पद्धति जिसे मनुष्य के संदर्भ में पंच-स्नान कहा जाता है, से उसे साफ करने में महज पांच मिनट लगे. अब शहंशाहे हिंद कूच के लिए तैयार थे. पौंटा साहिब को अलविदा कहकर निकल पड़े. इस कस्बे के तुरंत बाद ही उत्तराखंड राज्य की सीमा शुरू हो जाती है जहां अब सड़कें इतनी अच्छी बन गई हैं कि हैरत होती है कि यहां तो लगभग हर साल ही सड़क बनाने की जरूरत पड़ जाती है क्योंकि बरसात के हर मौसम में जगह-जगह पहाड़ों से मलबा गिरने, यहां-वहां से पानी बहने और ऐसी न जाने कितनी वजहों से सड़क की दुर्दशा हो जाती है. फिर भी उस की दशा लगभग चकाचक है. और यूपी, बिहार यहां तक कि देश की राजधानी दिल्ली में भी कई जगहों पर सड़कों की हालत कितनी खराब है. खैर...



रास्ते में सबसे पहली जगह पड़ी आसन बैराज. नदी के पानी को सिंचाई के लिए रोकने की वजह से यहां पर एक झील बन गई है. सर्दी का मौसम था और यहां प्रवासी पक्षी पखवाड़ा चल रहा था. साइबेरिया जैसे ठंडे इलाकों से आने वाले हजारों पक्षी यहां अपने शीतकालीन प्रवास का आनंद ले रहे थे. उनकी छवियां कैद करते इक्के-दुक्के पक्षी प्रेमियों को छोड़कर ये जगह बिल्कुल शांत थी. न टूरिस्टों की भीड़. न गाड़ियों की चिल्लपों. शोर था तो बस भांति-भांति के पंछियों का. मैंने और ज्यो थोड़ी देर यहां घूमे. फोटो-शोटो खींचे और फिर चल दिए.


अब हमने कालसी का रास्ता पकड़ा जहां से हमें यमुना के किनारे-किनारे चलना था. बैराज से कालसी करीब २० किलोमीटर की दूरी पर है और ये वो जगह है जहां यमुना पहाड़ से उतरकर मैदान में प्रवेश करती है. पहले हरबर्टपुर और फिर विकासनगर कस्बे से होते हुए हम कालसी पहुंच गए. नदी पर एक लंबा सा पुल बना है जिसे खत्म करने के बाद चढ़ाई का रास्ता शुरू हो जाता है. यहां पर यमुना के दर्शन हुए. शीतल और निर्मल जलधारा. एक बार फिर ताज्जुब हुआ कि कैसे दिल्ली में हमने इसे यमुना से यमुनाला बना दिया है.

अब पहाड़ का रास्ता शुरू हो चुका था. हमें पहले नैनबाग और डामटा होते हुए बड़कोट पहुंचना था जो यहां से करीब ८० किलोमीटर दूर है. जंगल से गुजरते हुए आगे बढ़े तो एक जगह चकराता बाएं और यमुनोत्री दायें का बोर्ड लगा दिख गया. अपना रास्ता पकड़ा और आगे चलकर उसकी पुष्टि के लिए सड़क किनारे एक भले आदमी से जानकारी चाही तो उसने कहा कि यही है. हालांकि बाद में हमें पता चला कि वो मुख्य सड़क नहीं बल्कि सिर्फ छोटे वाहनों के लिए बना रास्ता था. खैर, हम भी कोई टाटा ४०७ लेकर तो जा नहीं रहे थे, इसलिए आगे बढ़ते रहे. अच्छी बात ये थी कि ये रास्ता बीसेक किलोमीटर आगे जाकर मुख्य सड़क में ही मिल गया. यमुना के किनारे-किनारे सुंदर नजारों का लुत्फ लेते हुए हम चलते रहे और ढेर सारी इधर की, उधर की, काम की, बेकार की..बातें करते रहे. ज्यो के साथ यात्रा करने में अच्छी बात ये है कि मेरी तरह वो भी मंजिल पर पहुंचने की जल्दी के चक्कर में सफर के मजे की ऐसीतैसी नहीं करती. इसलिए जहां-जहां भी हमें खूबसूरत झरने और चमकते हिमशिखर दिखते हम कुछ देर के लिए रुक जाते और उन्हें निगाहों और कैमरों में जीभरकर कैद करने के बाद ही आगे बढ़ते.


नदी के साथ-साथ चलते पहले नैनबाग आया. यहां के सेब काफी मशहूर हैं. फिर डामटा जहां पहुंचते-पहुंचते दोपहर हो चुकी थी. पेट में चूहे दौड़ने लगे थे. अरसे से किसी पहाड़ी ढाबे में मटन खाने का मन था. पता किया तो पता चला कि वहां मटन अब बनता ही नहीं. वजह, बहुत मंहगा हो गया है. यानी अब वहां बकरे से ज्यादा मुर्गे की अम्मा खैर मनाने लगी है. खैर, कोई चारा नहीं था. इसलिए चिकन करी ही मंगवा ली जो ठीक-ठाक थी और ये भी पाककला से ज्यादा पहाड़ के हवा-पानी का असर था.


होटल में कुछ पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें फ्रेम में टंगी हुईं थीं. जिज्ञासावश पास जाकर देखा तो उनमें राजकपूर फुरसत से खाना खाते हुए दिखे. पता चला कि ८० के दशक में अपनी फिल्म राम तेरी गंगा मैली की शूटिंग के सिलसिले में हरसिल जाते वक्त वे डामटा के इस होटल में भी रुके थे और खाना खाया था. क्या बात है...होटल मालिक की तो धन्य धन्य हो गई.


डामटा से बड़कोट करीब ४० किमी दूर है. यमुनोत्री जाने से पहले मुख्य कस्बा यही है जहां सारी सुविधाएं हैं इसलिए बहुत से यात्री यहां रात्रि विश्राम करते हैं और फिर सुबह-सुबह यमुनोत्री के लिए रवाना होते हैं. इस वजह से यहां बड़ी संख्या में होटल, गेस्ट हाउस और टूरिस्ट लॉज बन गए हैं. यहां पहुंचते-पहुंचते सांझ गिरने लगी थी और साफ हो चुका था कि आज हरसिल नहीं पहुंच सकेंगे. अपने स्थानीय परम मित्र सुरेंद्र पुरी जी को फोन लगाया तो उन्होंने भी इसकी पुष्टि की कि महाराज आज तो हरसिल भूल जाओ, आपका जुगाड़ उत्तरकाशी के एक बढ़िया गेस्ट हाउस में करा रखा है, वहीं रुक जाओ. हमने भी सोचा कोई गम नहीं. ७० किमी पहले उत्तरकाशी में ही रुक जाते हैं.पुराने दोस्तों से ही मिल लेंगे.

बाकी अगली किश्त में...