Sunday, January 17, 2010

दिल लगा हरसिल में (अंतिम)




हरसिल आने से तकरीबन दस किमी पहले चढ़ते-चढ़ते रास्ता पहाड़ के शिखर तक पहुंच जाता है जहां से फिर ढलान शुरू होती है. इस जगह के तो क्या कहने. लगता है जैसे आसमां छू लिया हो. जहां भी देखिए सामने बर्फ से ढके पहाड़ और उनसे अठखेलियां करते बादल. नीचे गहरी घाटी में नजर आती भागीरथी. पहाड़ में ऐसा आमतौर पर होता ही है कि ऐसी जगहों पर हवा अपने सबसे उच्श्रृंखल रूप में होती है. दायें, बाएं, ऊपर, नीचे...हर तरफ से आप पर हमला बोलती.यहां पर बसस्टैंडनुमा एक ढांचा भी बना है, शायद पर्यटकों के दृश्याअवलोकन के लिए, मगर इसकी कोई खास जरूरत नहीं आती क्योंकि अवलोकन कहीं से भी करिए, नजारे ही नजारे नजर आते हैं. हां, बरसात में यह जरूर कुछ काम आ सकता है.

खैर हमने यहां पर कुछ फोटो खिंचवाईं और फिर बढ़ चले आगे. ढलान खत्म होने के बाद भागीरथी पर बना पुल पार किया जिसके बाद हल्की चढ़ाई शुरू हो गई. हरसिल अब बस पांच किमी रह गया था. लेकिन उसकी जगप्रसिद्ध खूबसूरती का विस्तार यहीं से दिखने लगा था. और फिर देखते ही देखते हमारी मंजिल आंखों के सामने आ गई.




दो बार कश्मीर भी जा चुका हूं और यकीन मानिए ये जगह उतनी ही खूबसूरत है.काफी कुछ पहलगाम जैसी...देवदार का घना जंगल. पर्वतों से उतरते झरने, अठखेलियां करती नदी...




सामरिक लिहाज से अहम इलाका है हरसिल इसलिए विदेशी पर्यटकों को यहां रात में रुकने की इजाजत नहीं. कैंट एरिया होने की वजह से सेना की भी मौजूदगी अच्छी खासी है. ठहरने के लिए जीएमवीएन रेस्ट हाउस, लोक निर्माण विभाग का बंगला और कुछ स्थानीय निजी होटल हैं. निजी होटल तो सर्दियों में बंद ही रहते हैं. लोक निर्माण विभाग के बंगले में रुकने के लिए उत्तरकाशी के जिलाअधिकारी से परमिशन लेनी होती है.जीएमवीएन रेस्ट हाउस बारामासी खुला होता है और किसी परमिशन की भी जरूरत नहीं. गर्मियों में ऑनलाइन बुकिंग की एहतियात जरूर रखें और सर्दियों में तो अक्सर इसके बगैर ही काम चल जाता है. एक जवान से रेस्ट हाउस का पता पूछा और पांच मिनट में वहां पहुंच गए. खुशकिस्मती से कमरा मिल गया. मैनेजर ने बताया कि अच्छा किया कि आप आज आए क्योंकि कल से तो सारे कमरे बुक हैं. लोग यहां नए साल का जश्न मनाने आ रहे हैं.

हमने भी सोचा कि चलो ठीक है. कल की रात यहां गुजारते तो वही सब दिखता जो मसूरी और शिमला में दिखता है. आज तो अपने मतलब का माहौल है. थोड़ी देर आराम करने के बाद मैंने ज्यो से कहा कि चलो नदी किनारे चलते हैं. लेकिन उसे भूख लगी थी और उसने कहा कि कुछ खाने के बाद ही चलेंगे. शाम के चार बज रहे थे और रेस्ट हाउस की मेस में ज्यादा से ज्यादा सैंडविच ही मिल सकता था इसलिए हम कोई और जुगाड़ देखने थोड़ी दूर बनी कुछ दुकानों की तरफ निकल लिए.

यहीं पर अपनी दुकान चलाते हैं हरिमोहन जोशी जिनके यहां ब्रेड ऑमलेट और मैगी मिल रही थी. हमने भी ऑर्डर दिया और इन व्यंजनों का ऐसा स्वाद अरसे बाद मिला. जोशी जी ने बताया कि इन दिनों तो यहां के ज्यादातर निवासी नीचे के बनिस्बत गर्म इलाकों में बने अपने घरों में चले जाते हैं. यहां की गढ़वाली और तिब्बती मूल वाले लोगों की मिश्रित आबादी का छह महीने ठिकाना वहीं होता है. गर्मियों में ये लोग फिर हरसिल आ जाते हैं. जोशीजी बारामासी यहीं रहते हैं. दुकान जो चलानी है. सर्दियों में भी सेना के जवानों की बदौलत चल जाती है उनकी दुकान.




पेटपूजा कर हम थोड़ी देर के लिए घूमने निकले. मगर हवा ऐसा आतंक बरपा रही थी कि ज्यादा दूर जाने की हिम्मत नहीं हुई. एक पल के लिए सोचा कि नदी किनारे तो और बुरा हाल होगा तो प्रोग्राम कैंसल कर दिया जाए. मगर अपने प्रिय शौक को टालने की दिल इजाजत नहीं दे सका और पहुंच गए हम नदी किनारे. सफेद रेत, नदी के साथ बहकर वक्त के सफर में चिकने हो गए पत्थर और फिर पानी की धारा. बस आग की कमी थी. थोड़ी ही दूर किसी ने कुछ समय पहले एक पेड़ की लकड़ियां काटी थीं. लकड़ियां तो वो बटोर कर ले जा चुका था मगर जूठन यानी थोड़े बहुत छिलके वहां पड़े थे. पेड़ देवदार का था जिसमें रेजिन की मात्रा खूब होती है. पहाड़ी होने का अनुभव यहां काम आया. इनके साथ नदी किनारे पानी के साथ बहकर आईं और रेत में जहां-तहां पड़ीं कुछ और लकड़ियां इकट्ठी कर लीं. इसके बाद थोड़ी सी सूखी घास जमा की, उसके ऊपर देवदार के छिलके लगाए और फिर लकड़ियां. आग लगने के लिए आदर्श स्थिति बन चुकी थी.

मगर उत्साह तब हवा होने लगा जब हर तरफ से हमला करने पर आमादा हवा ने माचिस की पच्चीस-तीस तीलियां बर्बाद कर दीं. नदी किनारे होने के कारण हवा और तेज थी. हम तीली झाड़ें कि पलक झपकते ही वो बुझ जाए. कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें. तभी थोड़ी ही दूर फड़फड़ा रही एक किताब दिख गई. उम्मीद की कुछ किरण नजर आई. एक कागज फाड़ा और किताब की ही आड़ बनाकर कोशिश की. कागज सुलग गया और फिर घास भी, फिर तो कोई समस्या ही नहीं थी.




इसके बाद खूब देर तक बैठे रहे. आग सेकते हुए बातें भी कीं और चुप भी रहे. आसमान में लाल रंग के न जाने कितने शेड्स बिखरे हुए थे. कुछ देर बाद शाम का पिघलता सोना धीरे-धीरे बर्फ की चोटियों से सिमटने लगा. घाटी अब धीरे-धीरे अंधेरे की चादर ओढ़ रही थी. लग रहा था मानो अब वक्त भी थमकर थोड़ा सुस्ता लेना चाहता हो.हम अपने इस सफर का सबसे यादगार लम्हा जी रहे थे.

कहते हैं जवानी की अच्छी यादें वो आग होती हैं जिन्हें तापकर इंसान बुढ़ापे का जाड़ा मजे में काट सकता है. भली कही जिनने भी कही...