Wednesday, January 13, 2010

दिल लगा हरसिल में-4


लेकिन जैसा कि अंग्रेजी में कहावत है ओल्ड हैबिट्स डाइ हार्ड...घोड़े बेचकर जो सोए तो ठंड और आलस ने आठ बजे तक पहले कोमा और फिर नौ बजे तक नीम बेहोशी में की हालत में रखा. नौ बजे भुनभुनाते हुए मैंने ज्यो को झिंझोड़ा जो अब भी नीम बेहोशी में ही थी. पूरी कोशिश करने के बावजूद होटल से चेक-आउट करते-करते घंटा भर लग गया. सोचा कि बेटा आज तो गए काम से. माना कि सफर का अपना मजा है लेकिन सिर्फ उसी के लिए तो यहां नहीं आए हैं. हरसिल भी जीभर कर देखना है. जल्दी-जल्दी मनोज के घर की तरफ निकले क्योंकि उसके यहां नाश्ते का वादा था.

लेकिन नाश्ता भी क्या नाश्ता था साहब..कोदे (एक तरह का मोटा अनाज जिसे अंग्रेजी में मिलेट भी कहा जाता है) की गर्मागर्म रोटियां और उस पर घर का बना हुआ सफेद मक्खन..ऐसा नाश्ता तो अब पहाड़ों से भी लगभग गायब हो चुका है. अरसे से जीभ इस स्वाद को भूली हुई थी. भाभी जी के लिए मन धन्य-धन्य कर उठा.

नाश्ता निपटाकर और मनोज से विदा लेकर हरसिल के लिए रवाना हुए जो अब ७० किमी दूर था. मनोज ने बता दिया था कि भटवाड़ी से आगे १८-१९ किमी का रास्ता बहुत खराब है इसलिए आराम से जाना. वास्तव में ऐसा ही था. दरअसल गंगा को उसके मायके यानी पहाड़ों में ही इस तरह बांधने की तैयारी हो रही है कि उसके आने वाले दिन अब अंधेरी सुरंगों में बीतें. गंगोत्री से करीब सात किमी आगे भैरोंघाटी से लेकर १९० किमी दूर कोटेश्वर तक गंगा पर करीब आठ बांध परियोजनाएं हैं. इनमें से कुछ बन चुकी हैं जिनमें भारत का सबसे बड़ा बांध टिहरी भी शामिल है और कुछ बनने की तैयारी में हैं.
ये सब इस तर्ज पर बन रही हैं कि नदी एक परियोजना के लिए बनाई गई सुरंग में घुसती है और बाहर निकलती है तो वहां से दूसरी परियोजना की सुरंग का मुंह शुरू हो जाता है. यानी उसे फिर सुरंग के भीतर डाल दिया जाता है. भैरोंघाटी से लगभग १०० किमी दूर स्थित धरासू तक ऐसा ही हो रहा है. धरासू से आगे ऐसा करने का स्कोप नहीं है क्योंकि वहां तक ४० किमी दूर बनी विशाल टिहरी बांध झील का पानी रुका हुआ है. कई वैज्ञानिक कह रहे हैं कि अरे भाई लोगों, सूरज की रोशनी उन दोस्ताना जीवाणुओं के लिए बेहद जरूरी है जो गंगाजल को लंबे वक्त तक खराब नहीं होने देते, नदी सुरंगों में ही बहेगी तो वो गंगा कहां रहेगी. पर सुने कौन. शहरों के मॉल्स चमचमाते रहें उसके लिए बिजली भी तो चाहिए. भले ही गंगा और उसका पानी खत्म हो जाए.



तो साहब भटवाड़ी से आगे सड़क इसीलिए खराब थी कि वहां हाल तक लोहारीनाग और पालामनेरी नाम की ऐसी ही दो जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माणकार्य चल रहा था जो जनविरोध के चलते फिलहाल रुका हुआ है. इन जगहों से गुजरते हुए ऐसा लगा जैसे हम दूसरे विश्वयुद्ध के चलते बरबाद हो चुकी किसी जगह से होकर गुजर रहे हैं. हर तरफ मलबे के ढेर. जंग खा रही मशीनें. आधे-अधूरे ढांचे, धूल में सने घर और हैरत से हमें देखते इक्का दुक्का लोग. सड़क का कहीं पता नहीं था और सब काम अंदाजे से हो रहा था. सही कहूं तो इस परिदृश्य में अपनी टिंगू सी कार आउट ऑफ़ थे वर्ल्ड टाइप की चीज़ लग रही थी. जैसे तैसे फर्स्ट और सेकंड गियर में रेंगते रेंगते ये जगहें पीछे छूटीं.


लेकिन इसके बाद जैसे हमें हमारे कष्टों का ईनाम मिल गया. सड़क और नजारों, दोनों का कायापलट हो गया था. रास्ता बिलकुल मक्खन और सामने बर्फ से ढके पहाड़. मन प्रफुल्लित हो गया..हरसिल अब करीब तीस किमी दूर था और ऊंचाई बढ़ने के साथ दृश्य भी बदल रहा था. पेड़ों की जगह अब छोटे पौधों और सख्त चट्टानों ने ले ली थी और जगह-जगह पर बर्फ भी दिखाई दे रही थी. ठंड का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि कई जगहों पर पहाड़ों से कुलांचे मारते हुए नीचे आने वाले झरने भी या तो जम गए थे या जमने की तैयारी में थे. चूंकि यह इलाका भारत-चीन सीमा से सटा हुआ है इसलिए यहां सेना की भारी मौजूदगी दिखी. रास्ता अब बेहद खूबसूरत हो गया था. नदी की निर्मल धारा. बर्फ से ढके पहाड़. तरफ अमल-धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है का बाबा नागार्जुन वाला सीन हो रहा था. अब हरसिल बस थोड़ी ही दूर रह गया था.


बाकी अगली किश्त में....