Thursday, January 7, 2010

दिल लगा हरसिल से-1

साल के आखिर में ऑफिस में छुट्टियां हुईं तो मैंने और ज्यो यानी मेरी श्रीमती जी ने सोचा कि कहीं घूम आएं. प्रोग्राम तो था चोपता का मगर आखिर में तय हुई हरसिल. उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में बसी एक खूबसूरत घाटी. ज्यो ने काफी लंबे वक्त से मंसूबे बांध रखे थे यहां जाने के. चूंकि पिछली कुछ यात्राएं मित्र-मंडली के साथ हो चुकीं थीं इसलिए इरादा किया कि इस बार मियां-बीवी अकेले ही घूमेंगे. हरसिल गंगोत्री से करीब २० किलोमीटर पीछे है. वैसे तो यहां बारामासी ठंड रहती है मगर दिसंबर में जाने का मतलब था कड़ाके की ठंड से निपटने की तैयारी. इसलिए ढेर सारे गर्म कपड़े पैक कर लिए. हरसिल दिल्ली से करीब पांच सौ किलोमीटर दूर है. जाने का परंपरागत रास्ता है मेरठ-मुजफ्फरनगर-रुड़की-ऋषिकेश-चंबा-धरासू-उत्तरकाशी-भटवाड़ी होते हुए. मगर चूंकि मैं इस रास्ते पर कई बार जाने की वजह से चट चुका था इसलिए सोचा कि इस बार किसी अलग रास्ते से चला जाए. नेट पर थोड़े से हाथ भांजे और रहगुजर तय हुई दिल्ली-पानीपत-करनाल-कुरुक्षेत्र-यमुनानगर-पौंटा साहिब-कालसी-डामटा-नैनबाग-बड़कोट और फिर धरासू-उत्तरकाशी होते हुए हरसिल.

जाने वाले दिन ऐसा माहौल बना कि दो बजे ही घर से रवाना हो पाए. कार का चेकअप कुछ दिन पहले करवा लिया था इसलिए थोड़ी तसल्ली थी कि लंबी यात्रा से पहले धन्नो की सेहत पूरी तरह से टंच है.

वैसे तो अपन हर हालात में मन लगा लेने वाले इंसान हैं मगर यदि रास्ता नया और अनदेखा हो तो अपने लिए यात्रा का रोमांच दोगुना हो जाता है. दिल्ली से करनाल और कुरुक्षेत्र तक का रास्ता तो एकदम मक्खन है. डबल लेन. कुरुक्षेत्र सिटी में घुसने से पहले ही दांये हाथ के लिए यमुनानगर के लिए सिंगल लेन सड़क जाती है. यह भी बुरी नहीं. बुरा सपना शुरू होता है यमुनानगर के बाद. हम यमुनानगर पहुंचे और वहां से ३५ किमी दूर पौंटा साहिब का रास्ता पूछा तो एक भले आदमी ने बताया कि साहब, वहां जाने वाली सड़क का तो बहुत बुरा हाल है. और रात का वक्त, न ही

जाएं तो बेहतर. हां, अगर यहां से १२ किमी दूर बिलासपुर तक चले जाएं तो वहां से खिज्राबाद नाम के कस्बे और फिर वहां से पौंटा के लिए बढ़िया सड़क मिल जाएगी. वैसे तो ये १२ किमी भी नर्क से कम नहीं पर उसके बाद राहत है. वरना आम रास्ते से तो गालियां देते हुए ही जाएंगे.

भले आदमी की बात मानकर हमने बिलासपुर का रास्ता पकड़ा. जिसे रास्ता कहा जा रहा था वह था भी या नहीं कहा नहीं जा सकता. बस यही तसल्ली थी कि उस पर गाड़ियां आ जा रहीं थीं. एक साइकिल वाला आधे घंटे तक हमसे आगे चलता रहा और हम कभी फर्स्ट तो कभी सेकेंड गियर में रिरियाते रहे.

खैर..बिलासपुर पहुंचे और जहां पर खिज्राबाद का रास्ता पूछा तो किस्मत से रास्ता सामने ही था. सड़क संकरी थी मगर अच्छी थी. ट्रैफिक भी न के बराबर था. १२ किमी के हिचकोलों के बाद धन्नो को आराम आया. तबियत से भागी. खिज्राबाद से सड़क इतनी बढ़िया थी कि पौंटा साहिब तक का सफर बहुत जल्दी तय हो गया.

पौंटा साहिब सिक्खों का पवित्र स्थान है. कहा जाता है कि गुरू गोविंद सिंह यहां पर कुछ समय के लिए रुके थे. यहां पर एक विशाल गुरूद्वारा भी है जहां गुरूजी के कुछ हथियार भी रखे हुए हैं. यहां से पहाड़ शुरू होते हैं. और इस बात का पता यहां के हवा-पानी से ही चल जाता है. मैदानों में रहने वाले किसी भी परम पहाड़ी के मन काफी अरसे के बाद पहाड़ों को देखकर जो आनंद भरता है उसका बयां शब्दों में करना बड़ा मुश्किल है. मुझे तो लगता है कि पहाड़ देखते ही मेरी उम्र में एक सांस और बढ़ जाती है.

यहां जब पहुंचे तो रात हो चुकी थी. पहले ही पता कर लिया था कि यहां पर एचपीटीडीसी का एक अच्छा होटल है. एक कमरा किराए पर ले लिया. ६०० रुपए में सस्ता, सुंदर, टिकाऊ इंतजाम. हीटर,गीजर सबकुछ. अपनी बल्ले-बल्ले हो गई. सामान पटककर और हाथ मुंह धोकर हम घूमने निकले. रात के नौ बज गए थे और सड़कों पर भीड़ बहुत कम हो गई थी. गुरुद्वारे के सामने एक फास्ट-फूड जुगाड़ में चाउमिन, वेज मोमोज और वेज सूप का लुत्फ लिया. पहाड़ की हवा में एक खास बात होती है कि कुछ भी अगर बहुत बुरा न बना हो तो जायकेदार ही लगता है. मनभरकर खाया. हालांकि ज्यो को खाना ज्यादा पसंद नहीं आया. मगर गौर करें कि मनभर और मन भर कर खाने के बाद. खैर.. पेटपूजा के बाद वापस होटल लौट आए.

बाकी अगली किश्त में